Thursday, August 5, 2010

बलिया में पुस्तकालय


लाइब्रेरी यानी पुस्तकालय एक किताबें रखने और पढ़ाने वाली संस्था से कुछ ज्यादा हुआ करती है. यह एक जीवन है और इस जीवन को जीने वाले हैं पुस्तक-प्रेमी लोग. लेकिन आज की चकाचौंध भरी जीवनशैली ने लोगों को खुद से ही काट कर रख दिया है. पूँजीवाद अकेलापन उत्पन्न करता है , ये तो कई विचारक कह गए है पहले ही , लेकिन आज कल तो लोग दूसरों  से नही खुद से पराए हो गए लगते हैं. ऐसे माहौल मे किताबें अगर साथ हों तो सुकून देती हैं. एक कवि ने तो कहा है की अकेलेपन में एक किताब ही सबसे अच्छी दोस्त होती है. तो इस उपभोक्तावादी समय में एक पुस्तकालय का अपना अलग ही महत्व है.

मैं उत्तर प्रदेश के  बलिया जिले का एक विद्यार्थी हूँ. बी ए तक की शिक्षा वहीं से ली  है मैने. बलिया कोई बहुत बडा शहर नही है. शहर की चौहद्दी तो इतनी छोटी है की अगर आप सायकिल से निकालिए तो २० मिनट में शहर का चक्कर लगा कर आ जाएंगे. इसी जिले ने साहित्य को हजारी प्रसाद द्विवेदी, केदारनाथ सिंह और अमरकान्त जैसे आलोचक, कवि और कथाकार दिए. जगदीश'सुन्दर' जैसे गीतकार दिए और राजनीति के कई योद्धा दिए. और उसी बलिया शहर में आज लोगों ने पुस्तकालयों की तरफ से मुह मोड-सा लिया है. यह विडम्बना ही कही जा सकती है. 

 इस शहर में कम से कम दो ऐसे पुस्तकालय हैं जो एक आम पाठक को लाभान्वित कर सकते हैं. दिक्कत ये है कि इन् दोनो पुस्तकालयों का कोई प्रचार तन्त्र नही है. एक तो राजकीय पुस्तकालय है जो चौक में कासिम बाजार के निकट  जी आई सी के गेट से लगा हुआ है. दूसरा भी चौक में ही टाउन हाल में है जिसे हिन्दी प्रचारिणी सभा चलाती है. राजकीय पुस्तकालय सरकारी है तो जाहिर है यहाँ पुस्तकों की संख्या और आगत अधिक है. साहित्य, समाजशास्त्र , राजनीति , इतिहास, विज्ञान , खेल और प्रतियोगी परिक्षाओ के लिए उपयोगी किताबों का यहाँ अच्छा संग्रह है. इसका सदस्यता शुल्क भी महज  ३५० रुपये है. वो भी आजीवन. लेकिन बलिया की युवा पीढी में इसके प्रति उदासीनता है. चन्द बुद्धिजिवियों और कुछ ज्ञान-प्रेमी युवाओं के अलावा यहाँ कोई नही आता. नयी  पीढी जितना ध्यान बाज़रों मे नए तरह के कपडों और जूतों पर देती है उसका एक चौथाई भी इधर नही देती  और तुर्रा ये कि हमें तो पढ्ने की  जगह ही नही मिलती ! मुख्य  बाजार से पुस्तकालय बिल्कुल लगा हुआ है लेकिन कोई भी वहाँ तक जाने कि ज़हमत नही उठाता. कहते हैं कि " हमरा त् कोरसे के कितबिया से फुर्सत नईखे, लाइब्रेरी के जाओ"  (हमें तो कोर्स कि ही किताबें पढ्ने से फुर्सत नही है , अब लाइब्रेरी कौन जाए.) जबकि ऐसे लोग अगर यदा कदा पढ़ते भी दिख जाएँ तो दुहाई है ! 
हजारी प्रसाद द्विवेदी के बलिया मे सारे युवा ऐसे ही नही हैं. कुछ लोग अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल निकाल कर वहाँ चले ही जाते हैं. लेखक ने  एक बार एक दिहाड़ी मजदूर को वहाँ पढ़ते देखा है. दिन में मेहनत करने के बाद शाम को वह अखबार पढ्ने आया करता था. उसका नाम शायद भूल गया हूँ लेकिन ऐसे ही लोग बलिया की  विरासत के सही हकदार हैं. 
पुस्तकालय का भवन है तो छोटा ही लेकिन २० व्यक्तियों के बैठने के  लिए काफी है. प्रकाश की व्यवस्था हालाँकि  बहुत अच्छी नही है. पुस्तकालय के कर्मचारी और अधिकारी भी काफी मदद करते हैं शोधर्थियों और जिज्ञासुओं की. किताबों के रख रखाव की व्यवस्था भी और सुधारी जा सकती है. लेकिन असली ज़रूरत है युवा वर्ग को इस तरफ आकर्षित करने की. 

हिन्दी प्रचारिणी सभा का पुस्तकालय सार्वजनिक तो नही है लेकिन  यहाँ पांडुलिपियों का काफी अच्छा संग्रह है. यहाँ से शोध के लिए किताबें मिल जाती हैं. ज़रुरत है इस सुविधा को हर खासो-आम तक पहुँचाने की.

बलिया रेलवे स्टेशन के पास सरस्वती पुस्तक केंद्र चलाने वाले श्री राजेंद्र प्रसाद इस दिशा में एक अच्छा प्रयास कर रहे हैं. अपनी  दुकान पर आने वाले हर ग्राहक को वो पुस्तकालयों में जाने के लिए प्रेरित करते हैं. यह जानते हुए भी की इस बात का उनके व्यवसाय पर भी असर पड़ सकता है. लेकिन यही तो है बलिया की धरती का असर जो अगर सही ढंग से हो तो श्रीराम वर्मा को "अमरकांत" बना देती है !
इस धरती पर पुस्तकालयों के प्रेमियों की कमी नहीं होनी चाहिए. उम्मीद तो यही है और उम्मीद एक जिंदा शब्द है!
नीलाम्बुज सिंह.
भारतीय भाषा केंद्र 
जे एन यू , नयी दिल्ली 
मोबाईल - 09968519160

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1 comment:

  1. ऐसा नहीं है कि टाइम ही नहीं है हमारे पास पढने के लिए टाइम तो बहुत है ..मगर लोग ये किताबें पढना ही नहीं चाहते दूसरी चीज...घर के लोग भी बच्चों को इन पुस्तकालयों का रास्ता नहीं बताते.....यहाँ तक कि जब बच्चों को कामिक्स तक लोग पढने नहीं देंगे कोर्स कि किताबों के आल्वें तो क्या होगा...पढने कि एक आदत एक रूचि जो कामिक्स वाले दौर से पैदा होती है उसे पैदा होने ही नहीं देते अब हमारे माँ बाप...जो आगे चल कर लुगदी साहित्य से होते हूवे ...अच्छे साहित्य तक पंहुचा सके उन्हें.....तो बच्चे जा कहाँ से पाएंगे पुस्तकालय ..उनके अन्दर इंटरेस्ट ही नहीं पैदा होता...
    दूसरी चीज पुस्तकालय भी चाहें तो शहर के हर कालेज और स्कूल में जा कर स्त्देंट्स को पुस्तकालय आने देखने और पढने को प्रेरित कर सकते हैं ये कोई जरुरी नहीं है कि वे हमेशा जाएँ लेकिन का बार कोर्स के शुरुवाती समय में जा कर वहां अपने पुस्तकालय की खूबियों और किताबों से स्टुडेंट्स की इंट्रो करा कर उनके और किताबों के बीच एक दोस्ती की शुरुवात तो करा ही सकते हैं.....
    आज की स्थिति भयावह है.....पुस्तकालय बंद होते जा रहे हैं पता नहीं इन किताबों का होगा क्या...रद्दी के बीच से किताबें खरीद कर पढ़ी हैं हमने ....रद्दी साहित्य जो कामिक्स और अच्छे साहित्य के बीच का स्पेस था जिसकी वजह से आगे लोग साहित्य पढने में रूचि लेते थे उसका तो अब मार्केट ही ख़त्म है ....कोई भी नई किताब नहीं आ रही उनमें जो आ रही है पहले निकाल चुकी किताबों के ही संस्करण है वो भी बहुत ही कम संख्या में.....

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